छठ पूजा का आध्यात्मिक महत्तव
Anu Didi
Brahma Kumaris Dhanbad
@BKDhanbad
छठ विषेश
वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। सूर्य की उपासना की चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलती है जहां देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख मिलता है।
उं सूर्य आत्मा जगतस्तस्युशष्च
आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।
दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि षोक विनाषनम्
सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्।।
सृष्टि के संचालक और पालनकर्ता के रूप में सूर्य की उपासना और सूर्य को जगत की आत्मा, शक्ति व चेतना समझा जाना इन पंक्तियों में अंर्तनिहित है। सूर्योपनिशद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पति का कारण निरूपित किया गया है और उन्हें ही संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्य को ही सम्पूर्ण जगत की अंतरात्मा माना गया है।
ब्रह्मवैर्वत पुराण में सूर्य को परमात्मा स्वरूप माना गया है। यजुर्वेद ने चक्षो सूर्यो जायत कहकर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। विश्व में सूर्य को प्रत्यक्ष देवता कहा जाता है अर्थात् हर कोई इनके साक्षात् दर्शन कर सकता है। शास्त्रों के अनुसार केवल भावना के द्वारा ही ध्यान और समाधि में ब्रह्मा, विश्णु, महेश आदि देवों का अनुभव हो पाता है। किन्तु भगवान सूर्य नित्य सबको प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। सूर्य स्थूल आंखों से साक्षात और सर्वसुलभ हैं और यही कारण है कि ज्ञान सूर्य अर्थात् परमपिता परमात्मा के स्थान पर भौतिक प्रकाश पुंज यानि कि देवता सूर्य की अराधना द्वापर काल से आरंभ हो गई।
छान्दोग्योपनिशद में सूर्य को प्रणव औंकार उं निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। यह कहानी प्रचलित है कि प्रथम बार जब दैत्य-दानवों ने मिलकर देवताओं को पराजित कर दिया था तब देवताओं की माता अदिति ने अपने पुत्रों की हार से व्यथित होकर देवता सूर्य से कहा कि हे भक्तों पर कृपा करने वाले प्रभु! मेरे पुत्रों का राज्य एवं यज्ञ दैत्यों एवं दानवों ने छीन लिया है।
आप अपने अंश से मेरे गर्भ द्वारा प्रकट होकर पुत्रों की रक्षा करें। अदिति गर्भवती हुईं किंतु उनके पति कश्यप क्रोध में गर्भस्थ शिशु को मृत शब्द से संबोधित कर बैठे। उसी समय अदिति के गर्भ से एक प्रकाशपुंज बाहर आया जिसे देखकर कश्यप भयभीत हो गए। कश्यप ने क्षमा-याचना की और आकाशवाणी हुई कि ये दोनो इस पुंज का प्रतिदिन पूजन करें और उचित समय पर पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जो आदित्य व मार्तण्ड नाम से विख्यात हुआ। आदित्य का तेज प्रचण्ड था और युद्ध में इनका तेज देखकर ही दैत्य पलायन कर गए।
पहले सूर्योपासना मंत्रों से होती थी और बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ जो भविष्य पुराण में ब्रह्मा-विष्णु के मध्य संवाद के रूप में दर्ज है। सूर्य देवता सात विशाल एवं मजबूत घोड़ों द्वारा चलाए जा रहे रथ पर सवार होते हैं। इन घोड़ों की लगाम लालिमा युक्त अरूण देव के हाथ में होती है और स्वंय सूर्य देवता पीछे रथ पर विराजमान होते हैं।
अन्य देवों की सवारी देखें तो श्री कृष्ण द्वारा चलाए गए अर्जुन के रथ के भी चार ही घोड़े थे, फिर सूर्य देवता के सात घोड़े क्यों? कई बार एक घोड़े पर सात सिर बनाकर मूर्ति बनाई जाती है ठीक उसी प्रकार से जैसे सूरज की रौशनी से सात अलग रंगों की रौशनी निकलती है। सूर्य के सात घोड़ों को भी इन्द्रधनुश के सात रंगों से जोड़ा जाता है, इसलिए प्रत्येक घोड़े का रंग भिन्न है और एक दूसरे से मेल नहीं खाता है। किरणें जैसेकि बैंगनी आनंद, गहरा नीला ज्ञान, आसमानी शांति, हरा रूहानी प्रेम, पीला सुख, नारंगी पवित्रता, लाल शक्ति का प्रतीक है।
प्रकाश पुंज ईश्वर से निकलने वाले सातो रंग इन्हीं गुणों के प्रतीक हैं जिससे जुड़कर आत्मा में मनोवांछित फल प्राप्त करने की खूबी आती है इसलिए अरूण देव द्वारा एक ओर रथ की कमान तो संभाली ही जाती लेकिन रथ चलाते हुए भी वे सूर्य देव की ओर मुख करके ही बैठते हैं। इस बड़े रथ को चलाने के लिए केवल एक पहिया मौजूद है और यह एक पहिया एक कल्प को दर्शाता है।
विष्णु के लिए प्रयुक्त नारायण विशेषण का प्रयोग सूर्य देव के लिए भी होता है। विष्णु और सूर्य देव के संबंध षतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट है जिसके अनुसार सूर्य देवता विष्णु जी के भौतिक उर्जा हैं। बृहत संहिता कहता है कि सूर्य देवता को दो हाथों से दिखाया जाना चाहिए और एक ताज पहनाया जाना चाहिए। किन्तु विष्णुधर्मोतम के अनुसार आकृतिचित्र में सूर्य के चार हाथ दिखाए जाने चाहिए, दो हाथों में पवित्रता सूचक कमल पुष्प, तीसरे में धर्मराज रूपी सोंटा और चैथे में लेखन उपकरण जैसे कि कुंडी-पत्र और कलम होने चीहिए जो ज्ञान का प्रतीक है।
गणेश जी की पूजा चतुर्थी को, विष्णु की पूजा एकादशी को आदि आदि। सूर्य सप्तमी, रथ सप्तमी से स्पष्ट है कि सूर्य की पूजा के साथ सप्तमी तिथि जुड़ी है। लेकिन छठ में सूर्य का षष्ठी के दिन पूजन अनोखी बात है। सूर्यशश्ठी व्रत में ब्रह्म और शक्ति दोनों की पूजा साथ-साथ की जाती है इसलिए व्रत करने वालों को दोनो की पूजा का फल मिलता है। यही बात इस पूजा को सबसे खास बनाती है।
महिलाओं ने छठ के लोकगीतों में इस पौराणिक परंपरा को जीवित रखा हैः
‘‘अन-धन सोनवा लागी पूजी देवलघरवा हे,
पुत्र लागी करीं हम छठी के बरतिया हे‘‘
इसमें व्रती कह रही हैं कि वे अन्न-धन, संपति आदि के लिए सूर्य देवता की पूजा कर रही हैं और संतान के लिए ममतामयी छठी माता या षष्ठी पूजन कर रही हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में बताया गया है कि सृष्टि की अधिश्ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्ठी है। पुराण के अनुसार, ये देवी सभी बालकों की रक्षा करती हैं और उन्हें लंबी आयु देती हैं।
शश्ठांषा प्रकृतेर्या च सा शश्ठी प्रकीर्तिता।
बलकाधिश्ठातृदेवी विश्णुमाया च बालदा।।
आयुःप्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी।
सततं षिषुपाष्र्वस्था योगेन सिद्धयोगिनी।।
छठ का व्रत कठिन होता है इसलिए इसे महाव्रत के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन छठी देवी की पूजा की जाती है। षष्ठीदेवी को ही स्थानीय बोली में छठ मैया कहा गया है। छठ व्रत कथा के अनुसार छठी देवी ईष्वर की पुत्री देवसेना बताई गई हैं।
देवसेना प्रकृति की मूल प्रवृति के छठवें अंष से उत्पन्न हुई हैं। षष्ठीदेवी को ब्रह्मा की मानसपुत्री भी कहा गया है। बच्चों की रक्षा करना इनका स्वभाविक गुण धर्म है। इन्हें विष्णुमाया तथा बालदा अर्थात पुत्र देने वाली भी कहा गया है। कहा जाता है कि जन्म के छठे दिन जो छठी मनाई जाती है वह इन्हीं षष्ठी देवी की पूजा की जाती है।
पुराणों के अनुसार मां छठी को कात्यायनी नाम से भी जाना जाता है और नवरात्री की षष्ठी को इन्हीं की पूजा की जाती है। कात्यायनी को भी षिषुप्रदा व आयुश्प्रदा और बालकों की रक्षिका देवी की ख्याती प्राप्त है और ये षष्ठी देवी का ही रूप हैं। गोधूली वेला के समय गंगाजल से स्नान के पषचात् कात्यायनी देवी की पूजा करना सबसे उतम है।
अर्थात् छठ पूजा ज्ञान सूर्य परमपिता परमात्मा शिव की अराधना है। आधे कल्प से आत्मा को विस्मृत कर चुके मानव जाति प्रकाश पुंज को भौतिक सूर्य समझ बैठे हैं और पवित्रता पर्व का सीमित लाभ ले पा रहे हैं। छठी देवी उन्हीं परमात्मा की शिव-शक्ति हैं जो ज्ञान तलवार धारण कर अंधकार मिटाकर सतयुग का अनावरण करेंगी। छठ पर्व जाने वाले युग अर्थात् कलियुग का विदाई समारोह है और आनेवाले कल्प का उद्धाटन पर्व है किन्तु स्थूलता ने दिक्भ्रमित कर दिया है।
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