रक्षा बंधन पर विषेश- अनु दीदी
आत्म-भान में टिकने का टीका, बनना है मीठा, ये लो मीठा ।
ख़ुशी में झुलाती, मिलाके शिव-साथी,
संगम की कल्याणकारी राखी…..
रक्षा बंधन के त्योहार के बारे में अधिकतर लोगों की यही मान्यता चली आ रही है कि यह त्योहार भाई द्वारा बहन की रक्षा का संकल्प लेने का प्रतीक है। साथ-साथ ये भी कहा जाता है कि यह त्योहार हमारे देश में चिरकाल से मनाया जाता रहा है। ये दोनों हीं बातें हमें इस विवेचना के लिए तैयार करते हैं कि रक्षा बंधन जैसा पवित्रता और स्नेह-हंसी ख़ुशी से जुड़ें पर्व की बुनियाद को असुरक्षा की भावना मानना कितना न्याय संगत है?
यदि हमारे देश में हर बहन अपने भाई को हर वर्श रक्षा सूत्र बांधती थी, तो क्या हमारे देश में अपराध इतना बढ़ा हुआ था कि हर कन्या, माता, बहन को भय बना हुआ था आर वह अपने लाज को खतरे में महसूस करती थी। इतिहास के अनुसार भारत में घर के दरवाजे खुले रहते थे क्योंकि चोरी-चकारी का कोई भय नहीं था। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि राजा के गुप्तचर वेष बदलकर पता लगाते थे कि किसी पर अत्याचार तो नहीं हो रहा, कोई दुखी तो नहीं और कोई अपनी जान व माल को खतरे में तो महसूस नहीं करता? यहां तक कहा जाता है कि राजा स्वंय वेश बदलकर अपनी प्रजा की हालत का पता लगाता था।
ऐसी स्थिति में रक्षा की समस्या का ऐसा विकराल रूप तो रहा ही नहीं होगा कि हर बहन अपने भाई को हर वर्श राखी बांधे। भारत के लोग स्वंय ही कहते हैं कि भारत देव भूमि था। यहां पर ऐसे आख्यान घर-घर में पढ़े जाते हैं जिसमें यह बताया गया है कि एक नारी के चुराए जाने पर चुराने वाले की सारी सत्ता घ्वस्त कर दी गई।
हमारे देश में ये कहा जाता है कि रक्षा करने का कर्तव्य क्षत्रियों का था। यदि किसी पर अत्याचार होता था या कोई दुराचार पर ही उतर आता तो क्षत्रिय लोग दुराचार का अन्त करने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा देते थे। आततायियों का सामना करना वे अपना धर्म मानते। तब क्या ऐसा माना जाए कि देश में शताब्दियों में ऐसे क्षत्रिय ही नहीं रहे थे कि जो माताओं-बहनों की रक्षा के लिए अपने क्षात्र-बल का प्रयोग करते और अपने धर्म का पालन करते! भारत में युग-युगान्तर ये नैतिकता और मर्यादा का वातावरण रहा है।
हर व्यक्ति अपने गांव की बहन को, दूसरे गांव में चले जाने पर भी सदा अपने गांव की बहन मानकर एक भ्रातृत्व स्नेह की दृश्टि से व्यवहार करता था। ऐसी व्यवस्था में और ऐसे वातावरण में भला अपने मान की रक्षा को एक समस्या मानकर अपने भाई को राखी बांधने का प्रश्न की कैसे उठ सकता था? दसअसल मनुश्य मुख्यतः पांच प्रकार की रक्षा चाहता है- तन की रक्षा, धर्म, सतीत्व की रक्षा, काल से और माया के विघ्नों से रक्षा। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या कोई मनुश्य इन पांचों प्रकार की रक्षा करने में समर्थ है भी? सर्वप्रथम तन की रक्षा पर विचार कर लीजिए।
तन की रक्षा के लिए मनुश्य अनेक कोशिशें करता है परन्तु अन्त में उसे यही कहना पड़ता है कि जिसकी मौत आई हो उसे कोई नहीं बचा सकता है अर्थात् भावी टालने से नहीं टलती। दुश्टों से पवित्रता की रक्षा भी वास्तव में सर्वसमर्थ परमपिता परमात्मा ही कर सकते हैं। इसलिए आख्यान प्रसिद्ध है कि कौरवों की भरी सभा में जब द्रौपदी का चीर हरण होने लगा तो द्रौपदी ने भगवान को ही पुकारा था क्योंकि तब कोई मित्र या संबंधी उसकी रक्षा नहीं कर सका था।
मनुष्य तो स्वंय कालाधीन है और बड़े-बड़े योद्धाओं को भी आखिर काल खा जाता है। विश्व विजेता सिकन्दर का उदाहरण हमारे सामने है। काल से बचने के लिए मनुश्य महामृत्युंजय पाठ कराता है अर्थात् परमात्मा शिव की ही शरण में जाने की कामना करता है। परमात्मा को ही संकट मोचन, दुख भंजन और सुख दाता कहते हैं और माया के बंधन से भी परमात्मा ही छुड़ाते हैं तभी तो मनुश्य परमात्मा को पुकारकर कहते हैं- विशय विकार मिटाओ पाप हरो देवा। वैसे भी मानव स्वभाव से स्वतंत्रता प्रेमी है और जिस बात को वह बंधन समझता है उससे छूटने का प्रयत्न करता है। परन्तु रक्षा बंधन को बहने और भाई त्योहार अथवा उत्सव समझकर ख़ुशी से मनाते हैं।
यह एक न्यारा और प्यारा बंधन है। हम देखते हैं कि बहन के अतिरिक्त ब्राह्मण भी यजमान को राखी बांधते हैं और बांधते हुए उसे वे कहते हैं कि इन्द्राणी ने भी इन्द्र को राखी बांधी थी और उससे इन्द्र को विजय प्राप्त हुई थी। यदि यह त्योहार भाई द्वारा बहन की रक्षा के संकल्प का प्रतीक होता तो आज तक ब्राह्म्णों द्वारा राखी बांधने का रिवाज न चला आता।
इससे तो यह विदित होता है कि यह त्योहार बहनों को भी ब्राह्मणों का दर्जा देकर और भाई को यजमान की तरह से राखी बांधने का प्रतीक है क्योंकि दोंनो द्वारा राखी बंधाये जाने की रीति भी समान है। दरअसल यह एक धार्मिक त्योहार है और यह इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने के संकल्प का सूचक है अर्थात् भाई-बहन के नाते में जो मन, वचन और कर्म की पवित्रता समाई हुई है, उसका बोधक है।
पुनःश्च, यह ऐसे समय की याद दिलाता है जब परमपिता परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा कन्याओं-माताओं को ब्राह्मण पद पर आसीन किया, उन्हें ज्ञान का कलश दिया और उन द्वारा भाई-बहन के संबंध की पवित्रता की स्थापना का कार्य किया जिससे पवित्र सृश्टि की स्थापना हुई। उसी पुनीत कार्य का आज पुनरावृति हो रही है। ब्रह्माकुमारी बहनें ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग द्वारा ब्राह्मण पद पर आसीन होकर राखी बांधकर बहन-भाई के शुद्ध स्नेह और पवित्रता के शुद्ध संकल्प की रक्षा करती हैं।
Leave a Reply